मेला चलें।

एक हाथ में चकरी दूसरे में गुब्बारे लिये बचपन के वह अनोखे दिन, एक अनोखा एहसास दिलाता। अजीब सी तृप्ति की अनुभूति होती। पिपिफरी हो या आइस क्रीम मुहमांगी मुराद जब पूरी होती – वह आनन्द ही कुछ और था।
आज के शॉपिंग मॉल में डिस्काउंट का सामान ले कर भी शायद दिल को वह सुकून नहीं मिलता जो बचपन मे मेले में झूला झूलते वक़्त आता था।
इंसान कि भूख को कोई नहीं मिटा सकता। और भौतिक चीजों की चाहत होना आम बात है। फाइव स्टार होटल में रहना हो, खाना हो, या बाहर घूमना विदेश भ्रमण – जीवन की रंगीनियों से कोई नहीं जो अपना मुंह मोड़ सकता है। इंसानों को क्या चाहिए जिसको पाकर वह तृप्त हो जाए? यह वो आज भी नहीं जान पाया है।

गिरीश अपने ऑफिस में बैठे – बैठे अपनी पुरानी यादों में खो गया, अपने पास आज सब कुछ है मगर एक सूनापन जो अंदर से गिरीश को खाये जा रहा था. “साहेब!” रामलाल आ गया! राकेश ने दरवाज़े पर खटखटाते हुए कहा ।
ओह! तो क्या छह बज गए।गिरीश ने दीवार पर टंगे घडी की और देखा और गाडी की ओर चल पड़ा. राकेश गिरीश का ब्रीफ़केस उठाकर पीछे – पीछे आया। गिरीश आज समय पर काफी दिनों बाद घर जा रहा था। मन ही मन सोच रहा था की इतने संघर्ष करके इस स्थान पर बैठा आज पुरे ज़िले में उसके गुण गाते हैं लोग। मगर इस चका चौंध वाली दुनिया से दूर हटकर कुछ दिन आराम मिले तो कितना अच्छा होता। हर वक़्त लोगों से घिरा रहकर उनके लिए काम करना ही कलेक्टर गिरीश का मकसद बन गया था।
आज गिरीश घर जल्दी आया। उसको देख स्नेहा खुश हो गयी। स्नेहा और गिरीश चार साल से विवाह संबंधन में बंधे थे।दोनों जैसे एक दूसरे के लिए ही बने हों। स्नेहा चाय का कप पकड़ाते हुए बोली, “गिरीश! कविता कह रही थी यहाँ पास में मेला लगा है। क्या हम जा सकते हैं?” गिरीश सुनकर सोच में पड़ गया, फिर बोला, “रामलीला ग्राउंड”. स्नेह मुस्कुराकर बोली, ” आप भी चलिए, तभी घूमने में मज़ा आएगा!”. मेले का नाम सुनकर गिरीश अपने बचपन के क्षणों में खो गया, चाबीवाले, जादूगर, खिलोने, हा हा हा। .. बाबा के कन्धों पर बैठकर कितने ही मेले तो देखे हैं! “चलो फिर घूम लेंगे!” गिरीश की आँखों में चमक आ गयी!

स्नेहा साधारण सी सूती साड़ी एवं माथे पर एक बड़ी सी बिंदी लगाकर तैयार हुई। गिरीश को स्नेहा की यह सादगी बेहद पसंद थी। रामलाल मेले के नाम से चौंक गया की आज क्या हो गया साहेब को मॉल में घूमने वाले आज हमारे साधारण मेले देखने कैसे बोल रहे हैं? मगर जोश में बोला, “साहब! आज आपको मेला हम घुमाएंगे।चलिए आज हम आपको ढाबे का चाय – समोसा भी खिलाएंगे। आगे चल के “काके डा ढाबा” देखकर रामलाल ने गाडी रास्ते के किनारे कर दी. कुल्हड की चाय और गरमा गर्म पकोड़े देख के स्नेहा के मुंह में पानी आ गया। गिरीश को अपना बचपन याद आया जो लगता था की इस व्यस्त्तता भरे जीवन में कहीं खो गया है। बाबा के साथ उनका हाथ पकडे मेला ग्राउंड में घूमना और बॉम्बे का लड्डू और हाथ में गुब्बारे .. एक पल में सब याद आ गया।
“साहब, काके के ढाबे की चाय और समोसे खाने लोग दूर दूर से आते हैं. आज आप हमारे मेहमान हैं। अहो भाग्य !मेरे जो मुझे यह अवसर प्राप्त हुआ।”
कुल्हड़ में चाय की सोंधी सोंधी खुशबु स्नेहा और गिरीश को तरोताज़ा कर दिया। रामलाल के इस व्यवहार से उनको ऐसा लगा जैसे कोई अपना – सा हो, यही तो इस छोटे शहर की खासियत है- “अपनापन”.
रामलाल ने दस मिनट में गाडी मेला ग्राउंड के तरफ आगे बढाई। रास्ते में छोटे – छोटे नन्हे बच्चों को अपने मम्मी – पापा के हाथ पकड़े सिटी बजाते गुब्बारे उड़ाते देखे। गिरीश समझ गया की अब हम मेला ग्राउंड के नज़दीक आ गए हैं। रामलाल ने भीड़ देखकर दूर गाड़ी लगाई। गाड़ी से उतर कर गिरीश ने स्नेहा का हाथ थामा। स्नेहा सहम सी गयी की लोग यहाँ देखकर क्या सोचेंगे। पर गिरीश बेपरवाह अपनी ज़िन्दगी आज जीना चाहता था।दोनों आज बचपन के दिन इस पल में जीना चाहते थे।

“आओ इस बड़े झूले पर बैठते हैं ” स्नेहा मेले की तरफ गिरश को ले गयी। दोनों हँसते खेलते मेले में घुमे आज जैसे एक अजीब सी तृप्ति की अनुभूति कर रहे थे। इतने खुश की जैसे उनकी कोई मुहँमांगी मुराद पूरी हो गयी हो.
“अरे मेमसाहब आप यहाँ?!” दशरथ ने पीछे से आवाज़ दी। दशरथ घर का माली अपने पत्नी के साथ मेला घुमा रहा था। “अरे दशरथ! तू तो बीमार था और यहाँ ? दशरथ ने शर्माते हुए बच्चों की तरफ देखते हुए बोलै “मैडम! बच्चों ने ज़िद की। तब मैं काम पर आ नहीं पाया। सॉरी मैडम! . स्नेहा ने हँसते हुए १०० रूपये आगे दे दिये “बधाई लो! कोई बात नहीं लेकिन सच बोलना चाहिए। मैं तुझे मना थोड़े करुँगी। अपने बच्चों के लिए खिलोने ले दे हमारी ओर से और मेला घुमा। स्नेहा ने मेहंदी लगवाई, चूड़ियां खरीदी. ढेर सारा सामान खरीद डाला। १०० रूपये में न जाने कितने सामान खरीद लिए। जब की किसी मॉल में जाते तो एक अच्छी साड़ी तक नहीं मिलती।
एक जगह तोता भविष्य बोलता तो दूसरी जगह पर बन्दर नाच दिखाता। दूर एक कोने पर एक जादूगर अपना जादू दिखा रहा था। अपनी हाथ की सफाई से लोगों का मन हर्षा रहा था। अचानक “मौत का कुआँ” नज़र आया।

रामलाल ने कहा, ” साहब! आज चलो कार का घूमना और तेज़ रफ़्तार से अपने जीवन को दांव पर रखकर कैसे लोग सबका मन लुभाते हैं देखते हैं। बहुत दिन हो गए देखे हुए। पेट के लिए लोग कैसे भयावना काम करते हैं। टिकट ले कर तीनों ऊपर चढ़े और स्नेहा ने पूरी रफतार भरी कार गिरीश का हाथ पकडे डरते हुए देखा। एक पल दोनी को लगा की मनो लोग कितने गरीब हैं की ये परिवार पालने के लिए इतना खतरनाक काम करते हैं। गिरीश और स्नेह को कई घंटे हो गए मेले घुमते हुए। अब वह वापिस अपनी गाड़ी को आये। गाडी में बैठे।
“रामलाल ! देखो ज़िन्दगी इन लोगों की कितनी सरल है! खुलकर जीते हैं। भले पैसे काम हों। ज़िन्दगी में दिखावा नहीं है। ममेहनत से दो वक़्त की रोटी कमाते हैं। हमें छोटी छोटी चीज़ों में ही खुश होना चाहिए। न की ब्रांडेड सामान, कार, आलिशान बंगला, जिसके लिए आज इंसान भागता रहता है। खाने – पीने का ठिकाना नहीं! रूपये कमाने के चक्कर में घर से दूर एक जूनून में की आगे बढ़ना है पर ये आगे कहाँ तक सीमित है?”गिरीश ने कहा।
दोनों आज बेहद खुश थे। एक तृप्ति एक नयी अनुभूति इतने सालों बाद। यह देखकर रामलाल खुश हुआ। चलो साहब मैं आपको कुछ दे पाया। एक पल की खुशी ही सही। राम लाल भैय्या आपके लिए ये तोफा। स्नेहा ने एक बड़ा सा बॉक्स बढ़ाते हए कहा। जिससे उसने रामलाल के परिवार के लिए सामान खरीदा था। रामलाल की आँखों में आज खुशी के आंसू थे आज “मैडम ने हमारे लिए इतना कुछ ,हम तो आपको खुशी देना चाहते थे मगर ” … बात को काट कर गिरीश ने कहा, राम लाल तुम भी तो हमारे अपने हो। ले लो और अपने घर में देना यह उपहार हमारे तरफ से।
गिरीश और स्नेहा आज इतने थके थे की बिस्तर पर बात करते -करते नींद आ गयी। यह सुकून भरी नींद कई दिनों बाद आयी थी।दोनों के मन में एक तृप्ति थी।
अगली सुबह गिरीश बरामदे में आया तो स्नेहा को देखकर कर हैरान हो गया। वह कल खरीदे हुए सामान को बाहर खेलते बच्चों में और राह चले मज़दूरों को इकठ्ठा करके बाँट रही थी उनकी आँखों में चमक थी खुशी थी और लोग उसको आशीर्वाद दे रहे थे। गिरीश यह देख कर खुश हुआ एवं गर्व हुआ अपनी पत्नी पर। बाहरी मेले से हम खुश ज़रूर हुए लेकिन ज़िन्दगी के असली मेले को जगा लिए। घूमना फिरना महंगे सामान ख़रीदना, बस अपने लिए जीना तो सब करते हैं। पर इस दिखावे से परे खुशी छोटी- छोटी खुशियों को बांटने से मिलती है वह अनमोल ख़ुशी आज हमको मिली।