खुशी।

*”खुशी”*

बहुत दिन बाद पकड़ में आई…
थोड़ी सी खुशी…तो पूछ लिया,
“कहाँ रहती हो आजकल….ज्यादा मिलती नही?”,
“यही तो हूँ” जवाब मिला।

“बहुत भाव खाती हो…कुछ सीखो अपनी बहन से…
…हर दूसरे दिन आती है मिलने हमसे परेशानी”।
“आती तो मैं भी हूं…लेकिन आप ध्यान नही देते”।

“अच्छा? कहाँ थी तुम जब पड़ोसी ने नई गाड़ी ली?”
“आपकी बेटी की टेस्ट रिपोर्ट पढ़ रही थी…
जिस बीमारी का डर था वो नही निकली…वही खड़ी चैन की सांस ले रही थी”।

कुछ शर्मसार तो हुए हम
लेकिन हार नही मानी
“और तब कहाँ थी जब रिश्तेदार ने बड़ा घर बनाया?”
“तब आपके बेटे की जेब मे थी…उसकी पहली कमाई बन कर”।

“और तब कहाँ थी…”
अगली शिकायत होंठो पे थी जब उसने टोंक दिया बीच मे।

“मैं रहती हूँ..…
कभी आपकी पोतियों की किलकांरियो में,
कभी रास्ते मे मिल जाती हूं एक बिछड़े दोस्त के रूप में,
कभी एक अच्छी फिल्म देखते हुए,
कभी गुम कर मिली हुई बालियों में,
कभी घरवालों की तालियों में,
कभी मानसून की पहली बारिश में,
कभी रेडियो पे पुराने गांने में,
दरअसल…थोड़ा थोड़ा बांट देती हूँ, खुद को
छोटे छोटे पलों में….उनके अहसासों में
लगता है चश्मे का नंबर बढ़ गया है आपके
सिर्फ बड़ी चीज़ो में ही ढूंढते हो मुझे
वहाँ भी आती हूं मैं…लेकिन कभी कभी
खैर…अब तो पता मालूम हो गया ना मेरा
अब ढूंढ लेना मुझे
लेकिन हाँ…चश्मे का नंबर बदलवा के”।।